चल खिवैया खे ले अपनी नाव ले पतवार भइया
दूर दीप है जाना
रुक मुसाफिर देख दुनिया, नील गगन औ' नीला दरिया
बिसरा भी दे ठिकाना
देख मुसाफिर...
ओर छोर खारा पानी पाताल गगन को चूमे
उस अंत में गोला लाल, रवि छुन छुन पानी में डूबे
मछरी भर भर कश्तियों का, मोड़ नोक फिर तट की ओर
गाँव घर लौट आना
नाव नाक की सीध में अपनी बढती जाए दूर क्षितिज के
झ्हरने से भीड़ जाना
सुन खिवैया...
सब सुंदर है जल अंबर पर नहीं हैं मेरे अपने
(काम चालु है ... :) )
Wednesday, February 11, 2009
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